Monday, January 11, 2010

पूस (WINTER) की लम्बी रातें...

चूल्हे की ठंडी रख सुलग-सुलग कर बुझ जाती है...

पर काम नहीं आती है.

कपकपाते होठों से मल्हार गाते हैं...

पर कपकपी नहीं जाती है.

महीन फटे चादर में टाँगे पेट में घुस जाती हैं...

पर नींद नहीं आती है.

उफ़! ये पूस की रातें... कितनी लम्बी हो जाती हैं.

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